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भारत में महिला आंदोलन

दुनिया भर के आंदोलनों को यदि देखा जाए तो उसमें एक समानता दिखाई देती है और वह समानता ही आंदोलनों के जन्म लेने का मूल कारण है जो कि है शोषण, दमन, अत्याचार या समानता का न होना। महिला आंदोलनों के लिए भी अगर कारणों की तलाश करेंगे तो यही कारण मिलेंगे। महिलाएँ तो सभ्यता के विकास के क्रम में लगातार दबाई जाती रहीं मानों सभ्य होने का सारा का सारा दारोमदार महिलाओं पर ही हो। गर्डा लर्नर मानती हैं कि महिलाओं के अधीन होने का सबसे प्रमुख कारण उनकी प्रजनन क्षमता रही है। पहले के कबीलाई समाज में महिलाओं की प्रजनन क्षमता एक संसाधन के रूप में रही लेकिन जब समाज आगे बढ़ा, शासक वर्ग वंशानुगत शासन चलाने की स्थिति में आए तो अपने वंश की रक्षा के लिए महिलाओं पर यौन नियंत्रण आवश्यक माना जाने लगा गया। यहाँ से महिला की प्रजनन शक्ति संसाधन न होकर उसके लिए बंदिश का ज़रिया बनने लगी। यह प्रक्रिया पूरे विश्व में लम्बे समय तक चली। पुरुषों के वर्चस्व ने स्त्री चेतना को विकसित होने देने के लिए बहुत कम स्थान दिया। लेकिन आधुनिक चेतना के बाद धीरे-धीरे समाज के सभी वर्ग में चेतना आ रही थी तो महिलाएँ भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रही थीं और अपने शोषण के कारणों को समझ पा रही थीं।

19वीं सदी में महिलाओं से आंदोलन

भारत में महिलाओं के आंदोलन के लिए १९वीं सदी बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय सामाजिक सुधार के बड़े प्रयास महिला विषयक रहे। सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर रोक, बहु विवाह एवं बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियाँ रहीं। इसे सामाजिक प्रगतिशीलता में बाधा मानते हुए बहुत से व्यक्तियों व संस्थाओं ने इसे दूर करने के प्रयास में रत रहे। राजा राममोहन रॉय इस कड़ी में सबसे प्रमुख हैं। सती प्रथा जिसे समाज द्वारा स्वीकृति मिली हुई थी, को दूर कर पाना इतना आसान नहीं था लेकिन इन लोगों के प्रयास से ही इस सामाजिक कुरीति को दूर करने में सफलता मिली। प्रश्न यह भी था कि यदि विधवा महिला सती नहीं होगी तो समाज में लगातार विधवाओं की संख्या बढ़ती जाएगी, ऐसी स्थिति में उनके पुनर्विवाह के लिए भी लोगों को समझाना पड़ेगा, उन्हें हेय दृष्टि से देखना बंद करना होगा। इन सब के मूल में यह समझने की कोशिश हुई कि महिलाओं को भी शिक्षित करने की बहुत ज़रूरत है जिस वजह से समाज में महिलाओं की शिक्षा के लिए विद्यालय, महाविद्यालय, छात्रावास तो खोले ही गए, साथ-साथ विधवा आश्रम व रक्षा निकेतनों की भी स्थापना हुई। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि सामाजिक सुधार के नाम पर महिलाओं की बेहतर स्थिति के लिए किए जा रहे प्रयासों से कुछ महिला संगठन व कुछ संस्थानों की स्थापना हुई।

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के प्रभावशाली सामाजिक- धार्मिक आंदोलनों में से एक रहा जिसने आधुनिक भारत की नींव में बड़ा योगदान दिया। इसे राजा राममोहन रॉय द्वारा तत्कालीन प्रचलित कुप्रथाओं के विरुद्ध 1828 ई. में स्थापित किया गया था। यह बंगाल के पुनर्जागरण का भी समय है। वैसे तो इसने व्यापक कार्य किए लेकिन ब्रह्म समाज द्वारा महिलाओं के ख़िलाफ हो रहे उत्पीड़न को रोकने के लिए प्रयास किए गए। समाज में महिलाओं के लिए कई प्रकार के पूर्वग्रह थे और उन पूर्वग्रहों का आधार धर्म था, इसलिए बदलाव के लिए सामाजिक कट्टरता से भी निबटना जरुरी रहा। बाल विवाह, बहुपत्नी विवाह के ख़िलाफ लोगों के अंदर जागरूकता पैदा करना समय की माँग थी जिसे ब्रह्म समाज द्वारा किया गया। इसी क्रम में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा दिया गया और कराए भी गए जिसके कारण सामाजिक असंतोष उपजा फलस्वरूप 1872 ई. में सिविल मैरेज ऐक्ट पास हुआ। इसमें महिला के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाकर 14 वर्ष किया गया था। केशव चंद्र सेन ने महिला शिक्षा के लिए सार्थक प्रयास किए।

प्रार्थना समाज

सामाजिक-धार्मिक सुधारों के लिए प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में मुंबई में आत्माराम पाण्डुरंग के द्वारा की गयी। बाद में इसमें समाज सुधारक महादेव गोविंद रानाडे और आर जी भंडारकर के इसमें शामिल हो जाने से और गति मिली व सुधार कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़े। प्रार्थना समाज ने भी महिला शिक्षा पर बहुत जोर दिया। इसने महिलाओं और दलितों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयास किए। बाल विवाह, महिलाओं के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर, विधवा पुनर्विवाह पर इस संस्था ने सामाजिक जागरूकता का प्रयास किया।

आर्य समाज

‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देकर स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की थी। यह पूर्ण रूप से धार्मिक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। धार्मिक आंदोलन के रूप में आर्य समाज ने वैसे तो बड़े कार्य किए लेकिन महिलाओं को लेकर भी इनकी दृष्टि प्रगतिशील रही। महिलाओं के लिए शिक्षा की आवश्यकता की इसने वकालत की। महिलाओं के लिए उस समय इसने समान अधिकारों की वकालत की, जिस समय महिलाएँ अपने मूल बिंदुओं के लिए संघर्ष कर रही थीं, ऐसे में समानता की बात करना बहुत बड़े परिवर्तन की ओर इशारा करता है। बाल विवाह के उन्मूलन हेतु भी इसने प्रयास किए। इसने कई महिला शिक्षा से सम्बंधित संस्थानों की भी स्थापना की।

मुस्लिम सुधार कार्यक्रम

जिस प्रकार के सामाजिक सुधार की बात हिंदू धर्म में हो रही थी, ठीक वैसा ही तत्कालीन समाज में इस्लाम के साथ नहीं हो रहा था। शिक्षा का अभाव व अन्य धार्मिक रूढ़ियाँ जैसे पर्दा प्रथा आदि के कारण वहाँ महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु और अधिक देरी हुई। फिर भी अन्य-अन्य स्थानों पर मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए आंदोलन के रूप में कई क्षेत्रों से नेतृत्व मिला। अलीगढ़ के शेख़ अब्दुल्ला ने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सार्थक प्रयास किया। वहीं ऐसा ही प्रयास लखनऊ के करामत हुसैन ने भी किया जहाँ महिला के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण बताते हुए लगातार इस हेतु कार्य किया। भोपाल की बेगम और सैयद अहमद खान का नाम भी इसी कड़ी में महत्वपूर्ण है। भोपाल की बेगम ने 1916 ई. में ‘अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं में सुधार की बात लगातार की जा रही थी। 1917ई. के सम्मेलन में जब बहुविवाह के उन्मूलन का प्रस्ताव पार्टी किया गया तो कट्टरवादी मुस्लिम समुदाय के लोगों का गुस्सा भी सामने आया।

अन्य प्रयास

पंडिता रमाबाई बाल विधवा व विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर लगातार मुखर रहीं और कोलकाता में इसे सुधारने का बीड़ा उठाया। उन्होंने 1881 ई. में आर्य महिला समाज की स्थापना पुणे में की और स्त्री शिक्षा के लिए भी लगातार कार्य करती रहीं। अन्य जाति के वकील से विवाह करने के कारण उन्हें लगातार कट्टरपंथियों का सामना करना पड़ा। 1889 ई. में विधवाओं के लिए उन्होंने शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक महिला आश्रम की भी स्थापना की। उन्होंने मुक्ति मिशन शुरू किया। इसमें समाज द्वारा त्याग दी गयीं महिलाओं व बच्चों को आश्रय दिया जाता था। विद्यागौरी नीलकंठ का नाम भी इसी क्रम में लिया जा सकता है जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के उत्थान में समर्पित किया। उन्होंने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अहमदाबाद शाखा आरम्भ की। ये कई शैक्षणिक संस्थानों से जुड़ी रहीं जो वैधव्य या शादी के कारण विद्यालय छोड़ देने वाली महिलाओं को शिक्षा प्रदान करती थीं।

गांधी युग व महिलाएँ

गांधी का युग आते-आते महिलाएँ शिक्षित होना शुरू कर चुकी थीं और उन्हें समाज-राजनीति के बारे में ज्ञान होने लगा था तो ऐसा कैसे होता कि वे राजनीति या नेतृत्व में अपनी उपस्थिति दर्ज न करातीं। गाँधी के आह्वान पर बहुत सी महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। महिला आंदोलनों पर भी गाँधी की छाप दिखाई देती है। महात्मा गांधी ने महिलाओं के समान अधिकार पर ज़ोर दिया व उन्हें पुरुषों की सहचरी के रूप में देखा। उन्होंने महिलाओं को उनके विशिष्ट गुणों सहिष्णुता, त्याग व दुःख सहन करने की असीम क्षमता के कारण अहिसंक आंदोलनों हेतु सबसे उपयुक्त माना। स्वयं नेहरू भी महिलाओं के उत्थान के लिए प्रगतिशील विचारक के रूप में रहे। उन्होंने केवल शिक्षा से आगे बढ़कर आर्थिक स्वतंत्रता की भी वकालत की और इसे महिला उत्थान के लिए सबसे ज़रूरी माना। इसका परिणाम यह रहा कि सविनय अवज्ञा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, नमक आंदोलन व शराब बेचने की दुकानों पर धरने के लिए सबसे आगे महिलाएँ ही रहीं।

बीसवीं सदी व महिला संगठन

एक ओर महिला शिक्षा पर जोर से महिलाएँ शिक्षित हो रहीं थीं तो दूसरी ओर कई संगठन इसमें अपनी भूमिका निभा रहे थे। 1917 ई. में मार्ग्रेट कजंस का विमेन्स इंडिया एसोसिएशन, 1926 ई. में नेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन विमेन, 1927 ई. में अखिल भारती महिला परिषद, 1934 ई. में ज्योति संघ जैसे संगठनों ने इस आवाज़ को और अधिक बुलंद किया। 1917 ई में महिला मताधिकार की बात उठी और इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका समर्थन किया।

स्वतंत्रता पश्चात महिलाएँ

भारत की आज़ादी के पश्चात ही महिलाओं को विवाह, उत्तराधिकार व संरक्षणता के विस्तृत अधिकार प्राप्त हुए। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह हुए कि महिला संगठन कुछ शिथिल हुए। महिलाओं के लिए यदि कुछ कार्यक्रम उस दौर में बने तो वे उस तरह विकेंद्रीकृत नहीं हो पाए कि सुदूर गाँवों तक पहुँच सकें। वे काफ़ी हद तक शहरों तक ही सीमित रह गए। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट और भारतीय ग्रामीण महिला संघ स्थापित हुए। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक महिलाओं की आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए कोई ठोस उपाय देखने को नहीं मिले। सरकार ने 1976 ई. में समान पारिश्रमिक अधिनियम पारित किया लेकिन व्यावहारिक रूप से यह निष्क्रिय रहा। महिलाएँ आर्थिक रूप से पिछड़ी रहीं इस कारण उनका शोषण भी जारी रहा। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल महिलाएँ आज़ादी के पश्चात कुछ राजनीतिक पदों पर पहुँची लेकिन यह संख्या बहुत कम थी। हालाँकि 74वें संविधान संशोधन के पश्चात महिलाओं को स्थानीय स्तर पर शासन में एक तिहाई आरक्षण अवश्य मिला।

सामाजिक स्तर पर देखें तो 1970-80 का दशक भारत में महिला पुरुत्थान के दशक हैं। शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता थी। आर्थिक कठिनाई बढ़ रही थी। महिला मज़दूरों की स्थिति बेहतर करने के लिए कई संगठन अस्तित्व में आए जैसे कार्यकारी महिला संघ, तमिलनाडु, श्रमिक महिला संगठन, महाराष्ट्र, महिला स्वरोज़गार संस्था, गुजरात। इसी समय घरेलू हिंसा, दहेज, मद्यपान, कार्यस्थल पर भेदभाव आदि मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर महिला संगठनों द्वारा विरोध दर्ज किया गया। 1980 ई. में दहेज विरोधी चेतना मार्च का गठन हुआ। इसके प्रभाव व जागरूकता कार्यों के चलते 1984 ई. में दहेज निषेध अधिनियम लाया गया। बलात्कार विरोधी आंदोलन भी इसी कड़ी का परिणाम रहा और 1983 ई. में इसके लिए दंड विधान संशोधित किया गया। 1988 ई. में राजस्थान में किशोर विधवा रूप कँवर के सती होने से महिला संगठनों ने सरकार की नींद उड़ा दी और जल्द-जल्दी में इसके लिए सरकार को बिल लाना पड़ा। ऐसे बहुत सारे उदाहरण और कारण रहे जिस वजह से 1992 ई. में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ जो एक वैधानिक संस्था के रूप में स्थापित है जो समय-समय पर सरकार को सुझाव देने का भी कार्य करती है। वर्तमान दौर में महिला की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति को और अधिक बेहतर करने के लिए तमाम एन जी ओ कार्यरत हैं। इसके साथ-साथ नागरिक समाज संगठनों ने भी अपनी जिम्मेदारी बेहतर तरीके से निभा रहे हैं। आज जागरूक समाज का परिणाम है कि ऑनलाइन सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर मी टू जैसे आंदोलनों ने बड़ा रूप धारण किया और कई महिलाओं ने अपने ऊपर हुए शारीरिक शोषण को ज़ाहिर किया। इन आंदोलनों ने आज अधिक विकेंद्रीकृत रूप लेकर समाज को जागरूक करने की कोशिश की है।

  श्रुति गौतम  

श्रुति गौतम दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पीएच.डी में शोधछात्रा रही हैं। इन्हें विश्वविद्यालय में नाटक, निबंध व साहित्यिक प्रतियोगिताओं के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। इन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया से ‘डिप्लोमा इन हिंदी पत्रकारिता’ प्राप्त कर प्रिंट मीडिया क्षेत्र में जनसत्ता व हरिभूमि में कार्य किया है। ये दैनिक जागरण, जनसत्ता, डेली न्यूज़ तथा ई-मैगजीन्स में लगातार लेखन के अलावा प्रकाशन समूहों एवं ई-पोर्टल्स पर सक्रिय रही हैं। साहित्य में रुचि के साथ फिल्म जगत से भी ख़ास जुड़ाव रहा है। ये 2018 से दिल्ली के इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।

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